प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महामुनिराज (दक्षिण) चालीसा
-दोहा-
सन्मति शासन को नमूँ, नमूँ शारदा सार।
कुन्दकुन्द आचार्य की, महिमा मन में धार।।१।।
इसी शुद्ध आम्नाय में, हुए कई आचार्य।
सदी बीसवीं के प्रथम, शान्तिसागराचार्य।।२।।
ये चारित चक्री मुनी, गुरूओं के गुरू मान्य।
चालीसा इनका कहूँ, पढ़ो सुनो कर ध्यान।।३।।
-चौपाई-
जय श्री गुरूवर शान्तीसागर, मुनि मन कमल विकासि दिवाकर।।१।।
इस कलियुग के मुनिपथदर्शक, नमन करूँ गुरू चरणों में नित।।२।।
शास्त्रों में मुनियों की महिमा, लोग पढ़ा करते थे गरिमा।।३।।
भूधर द्यानत की कविताएँ, कहती हैं उन हृदय व्यथाएं।।४।।
वे तो तरस गये दर्शन को, आगम वर्णित मुनि वन्दन को।।५।।
नग्न दिगम्बर चर्या दुर्लभ, थी सौ वर्ष पूर्व धरती पर।।६।।
तब दक्षिण भारत ने पाया, एक सूर्य सा तेज दिखाया।।७।।
भोज ग्राम का पुण्य खिला था, वहाँ सुगान्धत पुष्प खिला था।।८।।
सत्यवती की बगिया महकी, भीमगौंडा की खुशियाँ झलकीं।।९।।
नाम सातगौंडा रक्खा था, बचपन से ही ज्ञानी वह था।।१०।।
बाल विवाह किया बालक का, तो भी वह ब्रह्मचारीवत् था।।११।।
उनके मन वैराग्य समाया, जब श्री गुरू का दर्शन पाया।।१२।।
श्री देवेन्द्र कीर्ति मुनिवर से, उन्नीस सौ चौदह इसवी में।।१३।।
क्षुल्लक दीक्षा ली उत्तुर में, श्री शान्तीसागर बन चमके।१४।।
फिर उन्निस सौ बीस में उनसे, दीक्षा ले मुनिराज बने थे।।१५।।
मूलाचार ग्रंथ को पढ़कर, मुनिचर्या बतलाई घर-घर।।१६।।
समडोली की जनता ने तब,पदवी दी आचार्य बने तुम।।१७।।
संघ चतुर्विध बना तुम्हारा, जैनधर्म का बजा नगाड़ा।।१८।।
दक्षिण से उत्तर भारत तक, कर वहार फैलाया था यश।।१९।।
अंग्रेजों के शासन में तुम, पहुँचे इन्द्रप्रस्थ में ले संघ।।२०।।
उनको गुरु का दर्श मिला था, जैन दिगम्बर पंथ खुला था।।२१।।
धवल ग्रन्थ उद्धार कराया, नया प्रकाशन था करवाया।।२२।।
पैंतिस वर्ष के मुनि जीवन में, साढ़े पच्चिस वर्ष तक तुमने।।२३।।
उपवासों में समय बिताया, परम तपस्वी थी तुम काया।।२४।।
सर्प ने तन पर क्रीड़ा कर ली, विष न चढ़ा पाया विषधर भी।।२५।।
ली उत्कृष्ट समाधी तुमने, कुंथलगिरि पर सन् पचपन में।।२६।।
भादों शुक्ला दुतिया तिथि में, करी समाधी प्रभु सन्निधि में।।२७।।
पुन: वीरसागर मुनिवर ने, गुरू आज्ञा अनुसार शिष्य ने।।२८।।
प्रथम पट्ट सूरी पद पाया, कुशल चतुर्विध संघ चलाया।।२९।।
सन् उन्निस सौ सत्तावन में, शिवसागर आचार्य बने थे।।३०।।
इसके बाद तृतीय पट्ट पर, था दिन सन् उन्नीस सौ उन्हत्तर।।३१।।
धर्मसिन्धु आचार्य प्रवर बन, किया संघ का शुभ संचालन।।३२।।
सन् उन्निस सौ सत्तासी में, चौथे सूरी अजित सिन्धु ने।।३३।।
परम्परा क्रम में पद पाया, छत्तिस गुण को था अपनाया।।३४।।
नब्बे सन् में पंचम पदवी, श्री श्रेयांससिन्धु मुनि को दी।।३५।।
सन् उन्निस सौ बानवे में फिर, बने सूरि अभिनन्दनसागर।।३६।।
संघ चलाते सक्षमता से, शिष्यों के प्रति वत्सलता है।।३७।।
श्री चारित्र चक्रवर्ती की, परम्परा के छठे पुष्प ये।।३८।।
बढ़ा रहे निज गुरु की महिमा, दिन-दिन बढ़ती संघ मधुरिमा।।३९।।
चलता रहे यही क्रम उत्तम, निष्कलंक परमेष्ठि सूरि बन।।४०।।
-दोहा-
नमन शान्तिसागर गुरू, नमन ज्ञानमति मात।
उनकी शिष्या चंदना-मती रचित यह पाठ।।१।।
वीर संवत् पच्चीस सौ, बाइस शुभ तिथि जान।
श्रावण कृष्णा अष्टमी, पूरण गुरु गुणगान।।२।।
गुरुमणि माला परम्परा, का हो जग में वास।
वीरांगज मुनि तक रहे, यह निर्दोष प्रकाश।।३।।
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Source : जैन चालीसा
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