बुद्ध के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक भिक्षु बुद्ध का गांव से गुजरा, गांव की नगरवधू ने, वेश्या ने उस भिक्षु को आते देखा, भिक्षा मागते देखा। वह थोड़ी चकित हुई, क्योंकि वेश्याओं के मुहल्ले में भिक्षु भिक्षा मांगने आते नहीं थे। यह भिक्षु कैसे यहां आ गया? और यह भिक्षु इतना भोला और निर्दोष लगता था।
इसीलिए आ भी गया था। सोचा ही नहीं कि वेश्याओं का मुहल्ला कहां है! नहीं तो साधु पहले पूछ लेते हैं, वेश्याओं का मुहल्ला कहौ है? जहां नहीं जाना, वहां का पहले पक्का कर लेना चाहिए। जाने वाला भी पता कर लेता है, न जाने वाला भी पता कर लेता है। दोनों के मन वहीं अटके हैं’।
वह वेश्या नीचे उतरकर आ गयी। उसने इससे ज्यादा सुंदर व्यक्ति कभी देखा नहीं था। संन्यस्त से ज्यादा सौंदर्य हो भी नहीं सकता। संन्यास का सौंदर्य अपरिसीम है। क्योंकि व्यक्ति अपने में थिर होता है। सारी उद्विग्नता खो गयी होती है। सारे ज्वर खो गए होते हैं। एक गहन शांति और शीतलता होती है। ध्यान की गंध होती है। अनासक्ति का रस होता है। विराग की वीणा बजती है।
तो सन्यासी से ज्यादा सुंदर कोई व्यक्ति कभी होता ही नहीं।
उस वेश्या ने इस भिक्षु को कहा, इस वर्षाकाल तुम मेरे घर रुक जाओ। चार महीने वर्षा के बौद्ध भिक्षु निवास करते थे एक स्थान पर। तो उसने कहा, इस वर्षाकाल तुम मेरे घर रुक जाओ। मैं सब तरह तुम्हारी सेवा करूंगी। उस भिक्षु ने कहा, मैं जाकर अपने गुरु को पूछ लूं। कहा उन्होंने, कल हाजिर हो जाऊंगा। नहीं कहा, तब मजबूरी है।
भिक्षु ने जाकर बुद्ध को पूछा भरी सभा में, उनके दस हजार भिक्षु मौजूद थे, उसने खड़े होकर कहा कि मैं एक गांव में गया, एक बड़ी सुंदर स्त्री ने निमंत्रण दिया है। दूसरे भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि क्षमा करना, वह सुंदर स्त्री नहीं है, वेश्या है। सारे भिक्षुओं में खबर पहुंच गयी थी। सारे भिक्षु उत्तेजित हो रहे थे। उस भिक्षु ने कहा, मुझे कैसे पता हो कि वह वेश्या है या नहीं है? फिर इससे मुझे प्रयोजन क्या? उसने निमंत्रण दिया है, आपकी आज्ञा हो तो चार महीने उसके घर वर्षाकाल निवास करूं। आपकी आशा न हो तो बात समाप्त हो गयी।
और बुद्ध ने आज्ञा दी कि तू वर्षाकाल उसके घर बिता। आग लग गयी और भिक्षुओं में। उन्होंने कहा, यह अन्याय है। यह भ्रष्ट हो जाएगा। फिर तो हमें भी इसी तरह की आशा चाहिए। बुद्ध ने कहा, इसने आशा मांगी नहीं है, मुझ पर छोड़ी है। इसने कहा नहीं है कि चाहिए। और मैं इसे जानता हूं। चार महीने बाद सोचेंगे। जाने भी दो। अगर वेश्या इसके संन्यास को डुबा ले, तो संन्यास किसी काम का ही न था। अगर यह वेश्या को उबार लाए, तो ही संन्यास का कोई मूल्य है। तुम्हारे संन्यास की नाव में अगर एक वेश्या भी यात्रा न कर सके, तो क्या मूल्य है!
वह भिक्षु वेश्या के घर चार महीने रहा। चार महीने बाद आया तो वेश्या भी पीछे चली आयी। उसने दीक्षा ली, वह संन्यस्त हुई। बुद्ध ने पूछा, तुझे किस बात ने प्रभावित किया? उस वेश्या ने कहा, आपके भिक्षु के सतत अप्रभावित रहने ने। आपका भिक्षु किसी चीज से प्रभावित होता ही नहीं मालूम पड़ता। जो मैंने कहा, उसने स्वीकार किया। संगीत सुनने को कहा, तो सुनने को राजी। नृत्य देखने को कहा, तो नृत्य देखने को राजी। जैसे कोई चीज उसे छूती नहीं।
भीतर घाव न हो तो कोई चीज छूती नहीं।
अगर तुमने धर्म को स्थान—परिवर्तन समझा—वेश्या का मुहल्ला छोड़ दिया, क्योंकि डर है; बाजार छोड़ दिया, क्योंकि धन में लोभ है; भाग खड़े हुए हिमालय पर—तो माना परिस्थितियों से तो हट जाओगे, घावों का क्या करोगे? चोट तो न लगेगी घाव पर, सच। ठीक। जहर से तो हट जाओगे, लेकिन घाव का क्या करोगे? घाव तो बना ही रहेगा। भीतर ही भीतर रिसता ही रहेगा। प्रतीक्षा करेगा। कभी भी जब भी अवसर आएगा जहर को फिर छूने का, घाव फिर विषाक्त हो जाएगा।
ओशो Osho
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